आज महाशिवरात्रि के दिन बरसों के रूटीन के अनुसार अपने गाँव से कुछ दूर स्थित एक प्राचीन मंदिर (कथित) जटशंकर गया, तो बरबस बचपन की कुछ तस्वीरें चलने लगीं आँखों के आगे। जटशंकर कभी घने जंगल में रहा होगा पर अब मंदबुद्धि जनता की मेहरबानी से जंगल बहुत कुछ साफ हो गया है लेकिन फिर भी खत्म नहीं हुआ है। यहाँ पहले एक छोटा-सा मंदिर था, कहीं से एक बाबा यहाँ आकर रहने लगे, उनके भक्त बढ़े और धीरे-धीरे पक्का मंदिर भी बन गया। मेरी तो याददाश्त जहां तक जाती है मैंने पक्का मंदिर ही देखा है। अब तो वहाँ धर्मशाला और न जाने क्या-क्या बना कर जगह की सुंदरता और सुकून को बहुत कुछ बर्बाद कर दिया गया है।
कहा जाता है कि इस जगह पर रामायण युग में जटायु ने तपस्या की थी लेकिन मैं इसे कोरी गप्प मानता हूँ। हमारे देश के लोगों में हीन भावना डीएनए तक घुसी हुई है, हर किसी ने अपनी जगह को लेकर कहानियाँ बनाई हुई हैं। बहरहाल, कहानी सच्ची हो या झूठी स्थान अच्छा है इसमें कोई दो राय नहीं। हम लोगों के लिए किसी भी मेहमान के आने पर उसे घुमाने और उससे वाह-वाह कहलाने के लिए भी ये एकमात्र स्थान है। इसे कुछ सालों से तीर्थ भी कहा जाने लगा है जिससे धार्मिक लोगों को लाभ होने लगा है। यहाँ रहने वाले बाबा हर साल शिवरात्रि पर एक यज्ञ करते थे और इसी उपलक्ष्य में यहाँ 5 दिन का एक मेला लगता है। इस यज्ञ के बारे में भी एक दिलचस्प कहानी है वो ये कि बाबा ये यज्ञ इंद्र का आसान पाने के लिए कर रहे हैं और 100 यज्ञ पूरे होने पर इन्द्र का आसन उन्हें मिल जाएगा। हमारे देश के लोग महान किस्सागो और गपोड़ी हैं इस बात में कोई शक नहीं। बाबा के 100 यज्ञ तो पूरे नहीं ही होने थे और वो नहीं हुए, कुछ सालों पहले उनका देहांत हो गया पर बाबा इस जगह को ये एक अच्छी परंपरा और एक उत्सव दे गए। यज्ञ अब भी बाकायदा होता है, मैं कर्मकांड से दूर हूँ इसलिए मुझे उसके बारे में ज़्यादा कुछ नहीं पता लेकिन उसकी वजह से लगने वाले मेले का बचपन से भरपूर आनंद उठाया है और आज भी उठा रहा हूँ।
मुद्दे की बात पर वापस आते हैं…इस मेले के बहाने एक ज़माना बदलते हुए नज़रों के सामने से गुज़र गया। वो ज़माना था जबकि पैर छोटे-छोटे थे लेकिन 3 किलोमीटर की दूरी कोई दूरी नहीं कहलाती थी, हम यूं ही दौड़ते-भागते पहुँच जाते थे और सिर्फ मेले के लिए ही नहीं…जब भी मन करता तब चले जाते थे। आज अगर कोई कहे पैदल वहाँ जाना है तो हम ही उसे आश्चर्य से घूरने लगेंगे। पता नहीं समय के साथ इंसान बड़ा होता है या छोटा होता जाता है। मेला एक साल का दीवाली के अलावा उसी स्तर का एक और आकर्षण था, जैसे ही मेला आने को होता था मन में गुदगुदी होनी शुरू हो जाती थी। मुझे अब भी याद है वो एहसास कैसा होता था। मेले में खाने-पीने की चीजों की दुकानें जिनमें जलेबी सबसे प्रमुख थी और आज भी है और उसके बाद कचोरी, समोसा वगैरह…अब आइस क्रीम भी मिलती है। हम बच्चों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण झूले और खिलौने होते थे। उस समय जो खिलौने मिलते थे वो अब नज़र नहीं आते…पानी से भरा बलून और उस पर रबर बांधा हुआ जिससे उसे झुलाया जा सकता था…हम उसे लायलप्पा कहते थे। लोहे की एक डंडी पर लगा एक बंदर होता था जो डंडी के किसी भी सिरे को ज़मीन की तरफ कर देने पर ऊपर चढ़ता था। कारें थीं, मोटर बाइक थी और बिजली से चलने वाले कुछ बड़े खिलौने भी थे जो हमारी पहुँच से बाहर थे। मुख्य सड़क पर एक तरफ खाने-पीने की दुकानें होती थीं तो दूसरी तरफ खिलौनों की दुकानें। खिलौनों की दुकानों के पीछे महिलाओं के लिए चूड़ियों वगैरह की दुकानें होती थीं जहां जाना हमें बेहद उबाऊ लगता था।
अपने घर से जटाशंकर तक जाने का एक पक्का रास्ता था और एक कच्चा। जब कच्ची सड़क से वहाँ जाते थे तो मुझे याद है मैं रास्ते में धूल में बने हुए पहियों के, जूतों के निशान ध्यान से देखते हुए जाता था। हर पहिये का एक अलग डिज़ाइन धूल में बनता था, चप्पल का डिज़ाइन अलग, जूतों का अलग…मैं खुद अपने जूते या चप्पल के निशान बना-बना कर देखा करता था। पता नहीं मुझे क्या अच्छा लगता था लेकिन ये मेरी बहुत पक्की आदत थी। धूल में बनते बिगड़ते निशान और हर निशान की अलग डिज़ाइन इन्हें देखना मेरा शौक था। मेले से खिलौने लाकर घर भी जैसे बदल सा जाता था। ये 5 दिन बहुत ही खूबसूरत उत्साह, उमंग से भरे दिन होते थे। हम हर दिन जाना चाहते थे लेकिन जब तक बच्चे थे जा नहीं पाते थे।
जब खिलौनों वाली उम्र गई तो दोस्तों के साथ खुद जाने लगे और फिर एक नया आकर्षण पैदा हो गया। हर उम्र के अपने अलग आकर्षण होते हैं, ये बात अब इस उम्र में पहुँच कर समझ में आ रही है J। मेले में खुद आमिर खान होने का और जूही चावला के पीछे-पीछे पूरा मेला घूमने का आकर्षण शुरू हुआ। साथ में एक दीपक तिजोरी भी होता था जो हीरोइन के निकलने की या फिर उसकी लोकेशन की खबर देता था और साथ-साथ घूमता था J। फिर वो मायूसी भी याद है जो मेले के खत्म होने के बाद आती थी। ऐसा लगता था जैसे पूरी दुनिया उजड़ गई है। जटाशंकर में चारों तरफ कचरा और उजड़ी हुई दुकानें नज़र आती थीं। वहीं से हमें मन को समझा लेने की ट्रेनिंग मिली शायद, फिर आगे चलकर तो कदम-कदम पर मन को समझाते ही चले। एक दौर वो भी आया जब इस मेले से मोह-भंग भी हुआ, शायद वो दौर था जब मैं गाँव छोड़ कर चला गया था। एक समय शायद सभी लोगों का इसके लिए आकर्षण कम हो गया था। मेले में भीड़ कम हो गई थी, यूं लगने लगा था कि अब ये मेला ज़्यादा नहीं चलेगा। झूला एक ही आता था तब लेकिन ज़्यादातर समय खाली ही रहता था। कभी हम 2-4 लोग पहुँच भी जाते थे तो सवारी कम होने के कारण झूला नहीं चलता था। अचानक फिर समय बदला और ऐसा बदला कि लोगों का रेला का रेला आने लगा। अब देखो तो भीड़ कम होने का नाम ही नहीं लेती। मेला पूरे समय शबाब पर रहता है। एक क्या 10 झूले होते हैं अब और आधी रात तक बंद नहीं होते। शायद एंजॉय करने का नारा गाँव-गाँव पहुँच चुका है। पहले जो झूले आते थे वो बिजली से चलने वाले नहीं होते थे बल्कि दो आदमी उसके बीच में चढ़कर उस पर चलते थे जिससे वो घूमता था। एक 4 पालकियों वाला लकड़ी का झूला होता था जिसे दो लोग हाथ से घुमाते थे। अब सभी झूले बिजली वाले हो गए हैं। अब हम दिन में नहीं जाते शाम होने के बाद ही जाते हैं क्योंकि अब न तो खिलौनों वाली बात रही, न जूही चावला वाली…अब बच्चों को घुमाने और इस बहाने दोस्तों के साथ तफरीह करने जाते हैं।
मेला कोई महान आयोजन नहीं है, एक छोटी सी चीज़ है लेकिन एक छोटी सी चीज़ इंसान के जीवन में कितनी लहरें पैदा करती है। मेला अपने आप में कुछ भी हो लेकिन अगर मैं अपने जीवन की कहानी कहूँ तो उसका ज़िक्र आएगा ही क्योंकि उसने मुझे बहुत सारे भावनात्मक उतार-चढ़ाव दिये हैं। समाज में घटने वाली हर छोटी-बड़ी घटना इसी तरह इंसान के जीवन को प्रभावित करती है। आप गीतों को ही ले लीजिये, एक दौर में जो गीत मशहूर होते हैं वो उस समय की आपकी मानसिक अवस्था को अपने में क़ैद कर लेते हैं फिर बरसों बाद आप उन गीतों को जब सुनते हैं तो आपके वही बरसों पुराने एहसास फिर उनमें से रिसने लगते हैं और आपको एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं जैसे आज सुबह मुझे मेला ले गया। भारतीय समाज किसी बहुत पुराने युग में वाक़ई एक अति विद्वान और संवेदनशील समाज था जिसने ये जाना कि जीवन की विषमताओं में उत्सवों का क्या महत्व है। हमारे देश में इतने सारे त्योहार यूं ही नहीं हैं, ये उत्सव मनाने के बहाने हैं जिसमें इंसान अपने नीरस जीवन से अलग अपने मन को वो आनंद प्रदान कर सके जिसे जीवन का रस कहते हैं। इस उत्सव के साथ संगीत अनिवार्य रूप से जुड़ा है लेकिन समय के साथ ये संवेदनशील समाज सड़ गया और अब बस अवशेष हैं…हर चीज़ किसी न किसी रूप में चल तो रही है लेकिन वो अपना अर्थ खो चुकी है। शादी का उत्सव कभी ये सोच कर मनाया जाता होगा कि हमारे जीवन की सबसे बड़ी खुशी घटित हो रही है, आइये आप भी इस खुशी को बाँटिए…हम आपके साथ इस समय को यादगार बनाना चाहते हैं। फिर जब रिश्तेदार इकट्ठे हो जाते होंगे तो कुछ न कुछ करने की गरज़ से वो सब करते होंगे जो अब रीति-रिवाज कहलाते हैं। खुशी बाँटने जब लोग मेजबान के घर जाते होंगे तो अपनी खुशी से कुछ न कुछ भेंट ले जाते होंगे, वो भी अब एक सड़ा हुआ रिवाज बन गया है। अब हर उत्सव एक रवायत है जिसे निभाना है। त्योहार तो अर्थ खो चुके लेकिन मेले अभी जीवित हैं, इन्हें जीवित रहना ही चाहिए।
2-3 साल पहले मैंने मेले का एक छोटा सा विडियो बनाया था जो आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं –
Aniruddha Sharma